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ए॒ष वा॒जी हि॒तो नृभि॑र्विश्व॒विन्मन॑स॒स्पति॑: । अव्यो॒ वारं॒ वि धा॑वति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣa vājī hito nṛbhir viśvavin manasas patiḥ | avyo vāraṁ vi dhāvati ||

पद पाठ

ए॒षः । वा॒जी । हि॒तः । नृऽभिः॑ । वि॒श्व॒ऽवित् । मन॑सः । पतिः॑ । अव्यः॑ । वार॑म् । वि । धा॒व॒ति॒ ॥ ९.२८.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:28» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:8» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब ईश्वर का अज्ञाननिवर्तकत्वरूप से वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (एषः) यह परमात्मा (वाजी) बलवाला है और (नृभिः हितः) जिज्ञासुओं के अन्तःकरण में धारण किया गया है (विश्ववित्) सर्वज्ञ है (मनसः पतिः) मन का स्वामी है (अव्यः) अविनाशी है और (वारं विधावति) अपने भक्त के हृदय में निवास करता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा को मनसस्पति इसलिये कहा गया कि मन उसके सात्त्विकरूप सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ है, इसलिये मन से ज्ञान उत्पन्न होता है। वा यों कहो कि मन का निरोध केवल उसी की कृपा से हो सकता है, इसलिये मनसस्पति कहा है। तात्पर्य यह है कि आत्मिक बल बढ़ानेवाले पुरुषों को चाहिये कि सब ओर से अपने मन का निरोध करके अपने मन को उसी परमात्मा में लगायें ॥१॥
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आर्यमुनि

अथेश्वरोऽज्ञानस्य निवर्त्तकत्वरूपेण वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (एषः) अयं परमात्मा (वाजी) प्रबलः (नृभिः हितः) जिज्ञासुभिः स्वहृदये स्थापितः (विश्ववित्) सर्वज्ञः (मनसः पतिः) मनोऽधिपतिः (अव्यः) अविनाशी च (वारम् विधावति) स्वभक्तहृदयमधिवसति ॥१॥